स्थानों के नामकरण और उसके सांस्कृतिक समीकरण
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न्यूज़ टेल/डेस्क: पिछले दिनों मैंने एक अख़बार से राज्य सभा सांसद पवन के• शर्मा जी के उनके अपने निजी विचार के अनुसार लिखा हुआ एक लेख पढ़ा। उस में लेख में उन्होंने तथ्यों और विचारों को मध्यनजर रखते हुए स्थानों के नाम परिवर्तन पर टिप्पणी की है।
लेखक ने अपने विचार के अंतर्गत ख़ुद को एक केन्द्र बिंदु पर रखते हुए लेख को लिखा है। परन्तु तथ्य का होना एक अलग बात है जो की बेहद आवश्यक कड़ी है लेकिन कुछ चीज़ों को एकाएक व्यवहारिक रूप में ढाल पाना आसान नहीं होता। उदाहरण स्वरूप; लेखक ने कहा है कि “केवल स्थानों के नाम परिवर्तित कर देने से हमारी सांस्कृतिक विरासत पर दावा पेश नहीं हो जाता। हमें और भी कई प्रणालियों जैसे रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों को हमारी शैक्षिक कल्पना में स्थान नहीं मिलता।” तो इसमें सोचने और समझने वाली एक बात और है कि हमारा समाज और हमारे देश की बढ़ती आबादी नौकरी-पेशा की तरफ़ ज्यादा आकर्षित नज़र आती है। यहाँ सभी वर्ग उस शिक्षा व्यवस्था में अध्ययन करना चाहते हैं जहाँ से उन्हें परिणाम के रूप में रोजगार की प्राप्ति हो। हालांकि प्राचीन विद्या को पढ़ा जाना और उसकी जानकारी भी हमारे लिए उतनी ही आवश्यक है, क्योंकि उससे हमारी सभ्यता, संस्कृति और वैज्ञानिक समीकरण जुड़े हुए हैं। पर केवल इस विधा में अध्ययन करने से हमें वैदिक ज्ञान तो प्राप्त होगा परन्तु आधुनिकता और उसकी प्रायोगिक व्यवस्था में कहीं न कहीं हम पीछे रह जायेंगे।
इसीलिए हमारे लिए और साथ ही सरकार के लिए यह ज़रूरी है कि पौराणिक शिक्षा, और आधुनिक शिक्षा को लेकर एक बेहतर सामंजस्य स्थापित करे। यदि सरकार किसी स्थान का नया नामकरण भी करती है तो वो हमारे संस्कृति के लिए एक सकारात्मक क़दम होगा। क्योंकि गौर करने वाली बात ये है कि बदले जानें वाले नामों के जगह नये नाम में भाषा के आधार पर हमारी संस्कृति की झलक दिखाई पड़ती है। जिसमें हमारा स्तंभ को नये सिरे से एक आवश्यक प्रारूप प्राप्त हो रहा है। उसी प्रकार आधुनिकता को भी जगह देते हुए हमारे लिए उसके प्रति प्रायोगिक बनना भी उतना ही आवश्यक है।
- राहुल कुमार
सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ झारखंड