इतिहास को तोड़-मरोड़ कर नहीं छिपाया जा सकता सच्चाई से पराजय।
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न्यूज टेल डेस्क: लेखक का कहना है कि देश में इतिहास को इस तरह पेश किया जा रहा है कि तथ्यों के विरुद्ध भ्रम फैलाया जाए। कुछ राजनीतिक विचारधाराएं बार-बार यह तर्क देती हैं कि अगर सरदार पटेल प्रधानमंत्री होते तो देश में कई समस्याएं नहीं होतीं। लेकिन यह तथ्यात्मक रूप से गलत है, क्योंकि सरदार पटेल का निधन 1950 में हो गया था, जबकि देश का पहला आम चुनाव 1951-52 में हुआ। इसी तरह, वीर सावरकर को 1857 की क्रांति से जोड़ना भी तथ्यहीन है, क्योंकि उनका जन्म ही 1883 में हुआ। इतिहास को गढ़ने से सच नहीं बदलता।

ब्रिटिश नीति की चालाकी और हमारी ऐतिहासिक भूलें।अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो नीति ने भारतीय समाज को लंबे समय तक बांटे रखा। मैकाले के नेतृत्व में भारत की शिक्षा प्रणाली को इस तरह बदला गया कि हिंदू और मुसलमान एक ही देश में साथ रहते हुए भी एकता से दूर हो गए। यही कारण है कि आजादी के इतने साल बाद भी भारत सांप्रदायिक वैमनस्य से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है। यह दुर्भाग्य है कि अंग्रेजों की चालें आज भी हमारे सामाजिक ताने-बाने पर असर डाल रही हैं।

वर्तमान आतंकवाद और भारत की जवाबी कार्रवाई।लेखक कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले की चर्चा करते हैं जिसमें 26 निर्दोष लोग मारे गए। इसके जवाब में भारत ने ऑपरेशन ‘सिंदूर’ के तहत आतंक के ठिकानों को तबाह कर स्पष्ट संदेश दिया। भारत की विदेश नीति भी अब वैश्विक मंच पर मजबूत हो रही है और कई देश पाकिस्तान के झूठ को नकारते हुए भारत के साथ खड़े हैं। अंत में लेखक यह स्पष्ट करते हैं कि अब यह कहना कि यदि पटेल होते तो ऐसा नहीं होता, केवल भ्रामक और तर्कहीन राजनीति है। बंटवारा एक ऐतिहासिक विवशता थी और उसे वर्तमान नैरेटिव में उलझाकर किसी को दोष देना उचित नहीं।