होली करीब आते ही पलाश के फूलों से ग्रामीण इलाकों में बनने लगता है बायो कलर
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जमशेदपुर : होली का त्योहार हो और पलाश के फूल का जिक्र न हो ऐसा संभव ही नहीं है। इस साल भी माहौल कुछ ऐसा ही है। जिस तरह केमिकल युक्त रंगों से हेल्थ को जो नुकसान हो रहा है, उसे देखते हुए लोग सूखी होली या फिर बायो कलर से होली खेलने की जरूरत बता रहे हैं। ऐसे में रंग बनाने के लिए झारखंड में पलाश के फूलों का काफी उपयोग हो रहा है।
ईसरायकेला-खरसांवा डिस्ट्रिक्ट के विभिन्न क्षेत्रों में पलाश के फूलों का रंग बन रहा है। पलाश के फूलों से रंग बनाने का काम सरायकेला जिला के सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों, ईचागढ़, कुकड़ू, नीमडीह, राजनगर प्रखंड की महिलाएं होली खेलने के लिए पलाश के फूल से होली के ईको फ्रेंडली रंग बना रही हैं। इन रंगों की होली के दौरान खूब डिमांड होती है और इसकी खरादारी भी करते हैं।
रंग बनाने के लिए ग्रामीण पहले जंगल से पलाश के फूलों को तोड़कर लाते हैं। इसके बाद फूलों को पानी में भिंगोया जाता है। फिर पत्थरों पर घिसा जाता है। पूरी तरह घिस जाने के बाद इन्हें कपड़ों में डालकर छान लिया जाता है। इसके बाद शुद्ध हर्बल रंग तैयार हो जाता है। इन रंगों से होली खेलने पर कोई साइड इफेक्ट नहीं होता। और ये जल्दी छूट भी जाते हैं। ग्रामीणों का कहना है कि होली खेलने के लिए प्राकृतिक रंगों में सबसे बेहतर पलाश के फूल से निर्मित रंग ही हैं।

रंगो का पर्व होली के पहले से ही पलाश के पेड़ फूलों से लद जाते हैं। इससे बने रंगों से होली खेलने पर शरीर को कोई नुकसान नहीं होता, बल्कि ऐसा माना जाता है कि रोगग्रस्त लोग भी चंगे हो जाते हैं। वहीं केमिकल युक्त रंग स्वास्थ्य एवं त्वचा दोनों को नुकसान पहुंचाते हैं। वैसे आदिवासी समुदाय की संस्कृति में पलास फूल का महत्वपूर्ण स्थान है। बसंत के चढ़ते ही पलास के पेड़ों पर चटख नारंगी रंग के फूल बालाओं को झूमने पर मजबूर कर देते हैं।
पलाश के फूल खिलते ही शादी विवाह की रस्में शुरू हो जाती हैं। पलाश वृक्ष की जड़ और फली औषधीय गुणों से भरपूर हैं। पलाश फूल का आदिवासी संस्कृति व सभ्यता से भी गहरा जुड़ाव है। सांस्कृतिक कार्यक्रम समेत विभिन्न आयोजनों में भी इस फूल की महत्ता है। ग्रामीण क्षेत्र में शादी समारोह में माला के रूप मे पलाश फूल का ही प्रयोग होता है। आधुनिक समय में इस पर्व को लोग पर्यावरण संरक्षण से भी जोड़ कर देखते हैं, क्योंकि इसमें रंगों का इस्तेमाल नहीं होता है और पानी की भी बचत होती है। आदिवासी समुदाय हमेशा से ही पर्यावरण संरक्षण के साथ जल जंगल और जमीन को बचाने की मुहिम में लगे रहते हैं। वे इसे अपनी पहचान और संस्कृति मानते हैं। वहीं आदिवासी महिलाएं पलाश के फूल को जूड़े में लगाकर श्रृंगार करती हैं। सास्कृतिक कार्यक्रमों में भी इसका खास स्थान है।